रसिक संपादक मुंशी प्रेम चंद
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शर्माजी को ऐसा जान पड़ा, जैसे उनका रक्त-प्रवाह रुक गया है; नाड़ी छूटी जा रही है। उस चुड़ैल के साथ रहकर तो जीवन ही नरक हो जायेगा। चली हैं कविता करने, और कविता भी कैसी ? अश्लीलता में डूबी हुई। अश्लील तो है ही। बिलकुल सड़ी हुई, गंदी। एक सुंदरी युवती की कलम से वह कविता काम-बाण थी। इस डाइन की कलम से तो वह परनाले का कीचड़ है। मैं कहता हूँ, इसे ऐसी कविता लिखने का अधिकार ही क्या है ? यह क्यों ऐसी कविता लिखती है ? क्यों नहीं किसी कोने में बैठकर राम-भजन करती ? आप पूछती हैं मुझे छोड़कर भाग सकोगे ? मैं कहता हूँ, आपके पास कोई आयेगा ही क्यों ? दूर से ही देखकर न लंबा हो जायेगा। कविता क्या है, जिसका न सिर न पैर, मात्राओं तक का इसे ज्ञान नहीं है ! और कविता करती है ! कविता अगर इस काया में निवास कर सकती है, तो फिर गधा भी गा सकता है। ऊँट भी नाच सकता है ! इस राँड को इतना भी नहीं मालूम कि कविता करने के लिए रूप और यौवन चाहिए, नजाकत चाहिए, नफासत चाहिए। भूतनी-सी तो आपकी सूरत है, रात को कोई देख ले, तो डर जाय और आप उत्तेजक कविता लिखती हैं। कोई कितना ही क्षुधातुर हो तो क्या गोबर खा लेगा ? और चुड़ैल इतना बड़ा पोथा लेती आयी है। इसमें भी वही परनाले का गंदा कीचड़ होगा !
उस मोटी पुस्तक की ओर देखते हुए बोले- नहीं-नहीं, मैं आपको कष्ट नहीं देना चाहता। वह ऐसी कोई बात नहीं है। दो-चार दिन के विश्राम से ठीक हो जायेगा ? आपकी सहेली आपकी प्रतीक्षा करती होगी।
'आप तो महाशयजी संकोच कर रहे हैं। मैं दस-पाँच दिन के बाद भी चली जाऊँगी, तो कोई हानि न होगी।'
'इसकी कोई आवश्यकता नहीं है देवीजी।'
'आपके मुँह पर तो आपकी प्रशंसा करना खुशामद होगी, पर जो सज्जनता मैंने आप में देखी, वह कहीं नहीं पायी। आप पहले महानुभाव हैं, जिन्होंने मेरी रचना का आदर किया, नहीं तो मैं निराश ही हो चुकी थी। आपके प्रोत्साहन का यह शुभ फल है कि मैंने इतनी कविताएँ रच डालीं। आप इनमें से जो चाहें रख लें। मैंने एक ड्रामा भी लिखना शुरू कर दिया है। उसे भी शीघ्र ही आपकी सेवा में भेजूँगी। कहिए तो दो-चार कविताएँ सुनाऊँ ? ऐसा अवसर मुझे फिर कब मिलेगा ! यह तो नहीं जानती कि कविताएँ कैसी हैं, पर आप सुनकर प्रसन्न होंगे। बिलकुल उसी रंग की हैं।'